डॉनल्ड ट्रंप चार साल के अंतराल के बाद दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत गए हैं। इस जीत ने सर्वेक्षणों को धता बता दिया है और डेमोक्रेटिक पार्टी की चुनाव के पहले की आशंकाओं को रेखांकित किया है। यह मुकाबला किसी भी लिहाज से करीबी नहीं था। ट्रंप न केवल रिपब्लिकन प्रभुत्व वाले राज्यों में जीते बल्कि उन्होंने स्विंग स्टेट्स (वे राज्य जिनका रुझान स्पष्ट नहीं) में भी जीत हासिल की। 2016 के उलट ट्रंप ने पॉपुलर वोट में भी जीत हासिल की।
2004 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश के दोबारा चुनाव जीतने के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी रिपब्लिकन ने पॉपुलर वोट में जीत हासिल की हो। कमला हैरिस ने चुनाव के 107 दिन पहले अपना प्रचार अभियान शुरू किया था जो विश्व युद्ध के बाद के दौर में किसी प्रतिभागी का सबसे छोटा चुनाव अभियान था लेकिन उन्होंने जो गति हासिल की थी, उसे देखते हुए भी ट्रंप की जीत उल्लेखनीय है।
हैरिस ने ट्रंप से अधिक धन जुटाया और खर्च किया तथा पूर्व राष्ट्रपतियों और ट्रंप के पहले प्रशासन के दिग्गजों से लेकर नोबेल पुरस्कार जीतने वाले अर्थशास्त्री तथा टेलर स्विफ्ट एवं ओपरा विनफ्रे जैसे सांस्कृतिक रूप से प्रभावशाली लोग उनका समर्थन कर रहे थे। उनकी कमजोरी इस बात में निहित है कि उन्होंने खुद को बाइडनॉमिक्स से जोड़ा।
सर्वेक्षणों ने लगातार बताया कि बाइडन की आर्थिक नीतियां न केवल अलोकप्रिय रहीं बल्कि उनका एजेंडा भी अच्छी तरह परिभाषित नहीं था और गर्भपात के अधिकारों तथा नए परिवारों के लिए कर राहत के सिवा उसमें कुछ खास नहीं था। ट्रंप की अलोकप्रियता को लेकर उनका आत्मविश्वास भारी पड़ गया और वह इतनी आश्वस्त हो गईं कि उनके प्रचार अभियान की आरंभिक ऊर्जा बाद में नजर नहीं आई।
इसके विपरीत उनके प्रतिद्वंद्वी ने अपने चिरपरिचित एजेंडे को नहीं छोड़ा: सख्त आव्रजन नियंत्रण, अमीरों तथा बड़े कारोबारी घरानों को कर राहत, दूसरे देशों के साथ विद्वेष, लैंगिक भेदभाव और संरक्षणवाद। हत्या के प्रयास के बाद उन्होंने जो अनुकरणीय साहस दिखाया उसने भी उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाई। सीनेट पर कब्जे के बाद कांग्रेस में रिपब्लिकन की संभावित पूर्ण विजय के बाद उन्हें पहले दो वर्षों में ही अपनी नीतियों को लागू करने का अवसर मिल जाएगा।
अमेरिकी मतदाताओं को अपने चुनाव का परिणाम मिलेगा लेकिन ट्रंप के पहले कार्यकाल के अनुभव शेष विश्व को खुश होने की वजह नहीं देते। आर्थिक मोर्चे पर बाइडन ट्रंप की टैरिफ वाली नीतियों के आसपास ही दिखे। परंतु ट्रंप अपने चुनावी वादे को पूरा कर सकते हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि वह आक्रामक व्यापार नीतियों को बढ़ावा देंगे तथा चीन की वस्तुओं पर 60 फीसदी तथा अन्य देशों पर 10 फीसदी शुल्क लगाएंगे।
करों में कटौती का भी वादा किया गया है और इससे बजट घाटा बढ़ सकता है। इससे मुद्रास्फीति का दबाव बनेगा और मांग तथा अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर असर होगा। विश्व अर्थव्यवस्था भी इससे अछूती नहीं रहेगी। भारत और अमेरिका के रिश्ते बीते सालों में मजबूत हुए हैं। परंतु ट्रंप के दूसरे कार्यकाल का तात्कालिक आर्थिक प्रभाव क्या होगा इस पर नजर रखनी होगी। उच्च टैरिफ निर्यात को प्रभावित कर सकता है, खासतौर पर फार्मा उद्योग के लिए। इसके अलावा आईटी उद्योग भी एच1बी वीजा नीतियों को सख्त बनाए जाने से मुश्किलों का सामना करेगा। चीन पर संभावित उच्च शुल्क भारत के लिए जरूर अवसर हो सकता है। देखना यह होगा कि भारत नए हालात से कैसे निपटता है।
भूराजनीति के लिए भी ट्रंप का दूसरा कार्यकाल सकारात्मक नहीं नजर आता। रूस-यूक्रेन और इजरायल-हमास के बीच लड़ाई चल रही है और पुतिन के प्रति ट्रंप का पक्षपात और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो को लेकर उनकी अवज्ञापूर्ण भूमिका यूक्रेन के लिए बुरी खबर हो सकती है जो हथियारों के लिए नॉटो पर निर्भर है।
इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ उनके रिश्ते इस बात से पता चलते हैं कि अमेरिका ने 2017 में यरूशलम को इराजयल की राजधानी के रूप में मान्यता दी थी। यह फिलिस्तीन के लिए अच्छी खबर नहीं। जलवायु परिवर्तन के एजेंडे की बात करें तो ट्रंप का पेरिस समझौते से हटना और पर्यावरण नियंत्रण समाप्त करने की बात कहना भविष्य के बारे में बताता है। लब्बोलुआब यह कि आर्थिक मंदी, संघर्षों और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से जूझ रही दुनिया में ट्रंप की मजबूत जीत अनिश्चितता को और बढ़ाने वाली है।